Friday, June 28, 2019

पत्रकारों के सामने बेबसी छुपा नहीं पाए हर्षवर्धन

दिमाग़ी बुख़ार के प्रकोप के बढ़ने का एक और कारण जागरुकता का अभाव माना जा रहा है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपने अध्ययन की एक रिपोर्ट में कहा है कि 'अगर राज्य में समय से पहले स्वास्थ्य जागरुकता कैंप चलाए गए होते और परिवारों को सही जानकारी दी गई होती, तो बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से हुई बच्चों की भयावह मौतों को रोका जा सकता था.'
वैशाली के हरिवंशपुर गांव में सबसे अधिक 11 मौतें हुई हैं, वहां दो बेटों को खोने वाले चतुरी सहनी कहते हैं, "हर साल आंगनबाड़ी सेविकाएं हमारे टोले में आती थीं. दवाइयां, ओआरएस वग़ैरह बांटती थीं. कैंप लगता था. इस बार कोई आंगनबाड़ी सेविका हमारे तरफ़ नहीं आईं. जब हम ख़ुद आंगनबाड़ी जाते तो पता चलता कि सबक़ चुनाव ड्यूटी में हैं."
लेकिन स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव संजय का कहना है कि 'वे सरकारी कर्मचारी नहीं हैं, इसलिए आंगनबाड़ी और आशा वर्कर्स को चुनाव ड्यूटी में लगाने का कोई सवाल ही नहीं है.'
जबकि आंगनबाड़ी और आशा वर्कर्स को इस बार के चुनावों में पर्दानशीं महिलाओं को पहचानने का काम दिया गया था. हर बार यह काम महिला शिक्षिकाओं के ज़िम्मे होता था.
बिहार आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन की एक प्रतिनिधि ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बीबीसी को बताया, "चुनावों में ड्यूटी करना अनिवार्य था. नहीं जाने पर स्पष्टीकरण मांगा जाता था. कई गर्भवती महिला वर्कर्स की उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ ड्यूटी लगाई गई."
सवाल इस बात पर भी उठ रहे हैं कि सरकार ने पैसा रहते हुए अस्पतालों को दुरुस्त करने का काम नहीं किया.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से संसद को दी गई जानकारी के मुताबिक़, "साल 2018-19 के दौरान बिहार सरकार को नेशनल हेल्थ मिशन के तहत 2.65 करोड़ रुपए दिए गए थे, जिसमें केवल 75.46 लाख़ रुपए ही ख़र्च हुए. बिहार ने इस योजना के तहत स्वास्थ्य मेले और जागरूकता कैंप लगाने के लिए आवंटित धन का 30 फ़ीसद भी ख़र्च नहीं किया."
वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र कहते हैं, "दो-तीन दिन पहले हमलोग मोतिहारी में कैंप लगा रहे थे. एक बच्चे में दिमाग़ी बुख़ार के सारे लक्षण दिख रहे थे. उसे क़रीब के पीएचसी में गया लेकिन वहां बुख़ार मापने के लिए थर्मामीटर तक नहीं था. स्टाफ़ ने हमसे ही थर्मामीटर मांग लिया."
वो कहते हैं, "इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि सरकार और सिस्टम इसे लेकर कितना गंभीर है. अस्पताल में एक थर्मामीटर का नहीं होना और क्या ही कहता है."
विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार में इतनी तादाद में बच्चों की मौत के पीछे समय पर इलाज के लिए मुकम्मल इंतज़ाम का न होना सबसे बड़ा कारण है.
अगर सरकारी रिकॉर्ड की ही बात करें तो नीति आयोग की रिपोर्ट में बिहार की स्वास्थ व्यवस्था को फिसड्डी बताया गया है.
यहां 28,392 आबादी पर सिर्फ़ एक डॉक्टर है, यहां महज़ 13 मेडिकल कॉलेज, देशभर के मेडिकल कॉलेजों की सीटों का महज़ तीन फीसदी है.
बिहार में पीएचसी की हालत पहले से ख़राब है, कुल 1,833 पीएचसी में मात्र 2,078 डॉक्टर हैं. क़रीब 75 फीसदी ऐसे पीएचसी हैं जहां डॉक्टरों की समुचित व्यवस्था तक नहीं है.
पुष्यमित्र के अनुसार, "अधिकतर बच्चों की मौत अस्पताल जाने से पहले ही हो गई है. कोई अस्पताल जाते-जाते मर गया, कोई जा भी नहीं पाया. मुज़फ़्फ़रपुर के देहात और आसपास के इलाक़ों में कैंप करते हुए हमें कई ऐसे परिजन मिले जो चार-चार, पांच-पांच अस्पतालों का चक्कर लगा चुके थे. इलाज की सुविधा मुज़फ़्फ़रपुर को छोड़ कर कहीं नहीं है."
इस बीमारी के एक सामाजिक आर्थिक पक्ष भी सामने आया है. दिमाग़ी बुख़ार के अधिकांश पीड़ित बच्चे सामाजिक रूप से पिछड़े ग़रीब आबादी से आते हैं.
हरिवंशपुर में जहां 11 बच्चों की मौत हुई, वे सभी दलितों के बच्चे ही हैं. गांव में अन्य संपन्न जातियों के मुहल्ले में इस बीमारी का नामो निशान नहीं है.
अस्पताल अधीक्षक एसके शाही कहते हैं, "अभी तक के अधिकांश मामलों में यही देखा गया है कि जो ग़रीबों के बच्चे हैं, कुपोषित हैं, जिनके पास स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है और जहां पानी की समस्या है, वहीं के बच्चे मर रहे हैं. अधिकांश बच्चे शौचालय विहीन हैं. घर विहीन हैं. पीने का साफ़ पानी नहीं है."
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 2014 में सबसे अधिक 355 बच्चों की मौत इनसेफ़लाइटिस के कारण हुई, जबकि 2012 में इस बीमारी से 275 बच्चों की मौत हुई थी.
जाहिर है जब तक कुपोषण नहीं ख़त्म होगा, ग़रीबी नहीं हटेगी और और ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता 24 घंटे तक नहीं होगी मौतों का सिलसिला रुक पाएगा, इसमें संदेह है.

Tuesday, June 25, 2019

रग्बी में परचम लहराती ये आदिवासी लड़कियां

'किस' के रग्बी कोच रुद्रकेश जेना का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की सहूलियतें बहाल करने में अभी भी उनका संस्थान कुछ पीछे है. लेकिन वे दावा करते हैं कि 'किस' में उपलब्ध सुविधाएं देश के दूसरे स्थानों के मुक़ाबले बेहतर हैं.
वे कहते हैं, "मैं रग्बी खेलेने वाले कई देशों का दौरा कर चुका हूं और देश के दूसरे हिस्सों में जहां रग्बी खेली जाती है उन सभी स्थानों पर भी जा चूका हूं. अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आवश्यक बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने में हम अभी भी थोड़ा पीछे हैं. लेकिन यहां ट्रेनिंग के लिए आवश्यक हर चीज़ उपलब्ध है."
शायद यही कारण है कि फिलिपींस दौरे से पहले भारतीय महिला टीम के 14 दिन के प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी 'किस' कैंपस में ही किया गया था. इस शिविर में अलग-अलगग दक्षिणी एशियाई देशों से आए चार अंतरराष्ट्रीय प्रशिक्षकों ने खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिया.
इससे पहले डॉ सामंत ने 'किस' के खिलाड़ियों के प्रशिक्षण के लिए दक्षिण अफ्ऱीका से एक कोच को बुलाया था. फिलिपींस में जीत की 'स्टार' सुमित्रा मानती हैं कि उस प्रशिक्षण से सभी खिलाड़ियों को काफ़ी फ़ायदा हुआ.
अब तक धाविका दुती चांद ही 'किस' विश्ववियालय ('किस' का मूल प्रतिष्ठान) की 'मास्कट' रहीं हैं . लेकिन अब लगता है कि आने वाले दिनों मे खेलकूद की दुनिया में 27 हज़ार आदिवासी बच्चों के इस विशाल स्कूल से कई और सितारे उभरेंगे.
फिलिपींस की राजधानी मनीला में भारतीय महिला रग्बी टीम ने इतिहास रचा है.
एशियाई रग्बी चैंपियनशिप के आख़िरी मैच में शक्तिशाली सिंगापुर की टीम को 21-19 से हराकर भारतीय महिला टीम ने न केवल किसी '15-ए-साइड' अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में अपनी पहली जीत हासिल की, बल्कि कांस्य पदक भी जीता.
भारतीय टीम की 15 खिलाडियों में पांच ओडिशा से थीं. ये पाँचों लड़कियां भुवनेश्वर के 'कलिंग इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज' यानी 'किस' की छात्राएं हैं.
इनमें एक हैं सुमित्रा नायक जिन्होंने मैच ख़त्म होने के सिर्फ़ 2 मिनट पहले एक पेनल्टी स्कोर कर भारतीय टीम की जीत में अहम भूमिका अदा की .
उस ऐतिहासिक क्षण के बारे में पूछते ही सुमित्रा का चेहरा खिल उठता है. वे कहतीं हैं, "हमारे लिए स्कोर करना मुश्किल हो रहा था क्योंकि सिंगापुर काफ़ी तगड़ी टीम है और पिछली बार हमें बहुत बुरी तरह हरा चुकी है.''
''मैच ख़त्म होने में 2 मिनट बाक़ी थे जब मैंने तय किया की एक पेनल्टी ली जाए. मन में विश्वास था लेकिन कुछ डर भी. मैंने पेनल्टी ली और स्कोर किया. लेकिन अभी भी दो मिनट बचे थे और सिंगापुर की टीम इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी. लेकिन हमने उनके आक्रमण का डट कर मुक़ाबला किया. जब हूटर बजा और हम जीत गए, उस समय की अनुभूति मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती."
जाजपुर ज़िले के एक ग़रीब आदिवासी परिवार की लड़की सुमित्रा की मां की मृत्यु 1999 में हो गई थी. उस समय सुमत्रा बहुत छोटी थीं और उनके चार और भाई बहन भी थे.
सुमित्रा के पिता के लिए परिवार संभालना मुश्किल हो रहा था. साल 2006 में कहीं से उन्होंने 'किस' के बारे में सुना और सुमित्रा को वहां दाख़िल करा दिया.
बाद में उनके बाक़ी भाई-बहन भी वहां आ गए. साल 2007 में जब 'किस' की टीम ने लंदन में 14 वर्ष से कम आयु वर्ग की विश्व चैंपियनशिप का ख़िताब जीता, उसके बाद सुमित्रा रग्बी की क़ायल हो गईं और इस खेल में महारत हासिल करने की कोशिश में जी जान से जुट गईं.
विजयी भारतीय टीम में शामिल 'किस' की बाक़ी चार लड़कियों की कहानी भी सुमित्रा की कहानी से मिलती-जुलती है. केओन्झर ज़िले की मीनारानी हेम्ब्रम के पिता के गुज़र जाने के बाद उनकी मां रोज़गार की तलाश में भुवनेश्वर आ गयीं और लोगों के घरों में बर्तन मांजकर गुज़ारा करने लगीं. फिर उन्होंने 'किस' के बारे में सुना और मीना का एडमिशन वहां करवा दिया.
बेहद ग़रीब परिवार से आईं ये लड़कियां अगर आज एक अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भारत के लिए गौरव लाई हैं, तो इसका पूरा श्रेय 'किस' के फाउंडर और कंधमाल से लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्य डॉ अच्युत सामंत को जाता है.
उन्होंने न केवल इन लड़कियों को मुफ्त पढ़ने-लिखने का अवसर दिया बल्कि उनके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की ट्रेनिंग और बुनियादी सहूलियतें भी मुहैया करवाईं.
विजयी भारतीय महिला रग्बी टीम की एक और सदस्य हुपी माझी कहती हैं, "वे तो हमारे लिए भगवान हैं. उनका ऋृण हम सात जन्मों में भी नहीं चुका सकते."
हमने डॉ. सामंत से पूछा कि उन्होंने रग्बी जैसे एक ऐसे खेल को बढ़ावा देना का क्यों सोचा जो भारत में बहुत लोकप्रिय नहीं है. इस पर उन्होंने कहा, "यह सच है की रग्बी आज भी भारत में बहुत लोकप्रिय खेल नहीं है. लेकिन ऐसा नहीं है कि हमने रग्बी के लिए ही ऐसा किया है. हमने हमेशा कोशिश की है कि सभी खेलों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों, जिससे देश के कोने-कोने में, ख़ासकर आदिवासी इलाकों में छिपी हुई प्रतिभाओं को विकसित होने का मौक़ा मिले."
'किस' के रग्बी कोच रुद्रकेश जेना का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की सहूलियतें बहाल करने में अभी भी उनका संस्थान कुछ पीछे है. लेकिन वे दावा करते हैं कि 'किस' में उपलब्ध सुविधाएं देश के दूसरे स्थानों के मुक़ाबले बेहतर हैं.
वे कहते हैं, "मैं रग्बी खेलेने वाले कई देशों का दौरा कर चुका हूं और देश के दूसरे हिस्सों में जहां रग्बी खेली जाती है उन सभी स्थानों पर भी जा चूका हूं. अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि आवश्यक बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने में हम अभी भी थोड़ा पीछे हैं. लेकिन यहां ट्रेनिंग के लिए आवश्यक हर चीज़ उपलब्ध है."
शायद यही कारण है कि फिलिपींस दौरे से पहले भारतीय महिला टीम के 14 दिन के प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी 'किस' कैंपस में ही किया गया था. इस शिविर में अलग-अलगग दक्षिणी एशियाई देशों से आए चार अंतरराष्ट्रीय प्रशिक्षकों ने खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिया.

Sunday, June 9, 2019

يرجع تاريخ كنيسة الثالوث المقدس في روثويل إلى القرن الثالث عشر.

وخلال الدوربار، الذي يجذب الكثير من السياح، يمتطي الأمير جوادا في المدينة مصحوبا بحاشيته في أزيائهم التقليدية الملونة ثم يصطف الناس لإبداء الاحترام والتوقير له، في تقاليد تجعل سكان كانو يشعرون بالفخر.
وكانت محاولة سابقة من أحد حكام الولاية في ثمانينيات القرن الماضي لتقسيم الإمارة قد أسفرت عن وقوع اشتباكات.
تقع قرية كوردي في ولاية غوا الغربية الهندية وهي قرية لا يمكن رؤيتها إلا لمدة شهر واحد فقط كل عام، إذ تختفي تحت الماء طوال 11 شهرا. وعندما تنحسر المياه، يجتمع سكانها الأصليون، الذين استقروا الآن في مكان آخر، لإقامة احتفالات في منازلهم القديمة بالقرية.
تقرير سوبريا فوهرا يلقي الضوء على هذه القرية.
توجد القرية بين جبلين في منطقة غاتس الغربية التي يمر عبرها نهر سالاوليم، أحد روافد نهر رئيسي في غوا.
كانت تلك القرية يوما ما مزدهرة في جنوب شرق غوا.
ولم تعد القرية موجودة في عام 1986، كما يعلم سكانها. فبعد بناء أول سد في الولاية، غمرت المياه القرية بالكامل.
بيد أن المياه تنحسر كل عام في شهر مايو/أيار لتكشف ما تبقى من القرية.
وتظهر الأرض المتصدعة، وجذوع الأشجار، وبقايا منازل ومعابد دينية متآكلة، وبقايا الأدوات المنزلية، وأطلال قنوات المياه، وأميال من الأرض الجرداء التي تتقاطع مع المسطحات المائية.
كانت أرض القرية خصبة وكان معظم سكانها، الذين كان يبلغ تعدادهم نحو 3 آلاف نسمة، يعيشون فيها، ويحرثون حقول الأرز المحاطة بأشجار جوز الهند والكاجو والمانجو والجزر.
كان الهندوس والمسلمون والمسيحيون يعيشون معا. وكانت القرية تضم معبدا رئيسيا ومعابد أصغر وكنيسة وضريحا إسلاميا، وهي مسقط رأس المغنية الكلاسيكية الشهيرة موغباي كوردكار.
بيد أن الأمور تغيرت على نحو كبير بعد تحرير غوا عام 1961 من سيطرة البرتغاليينوزار داياناند باندودكار، رئيس وزراء الولاية، القرية وأعلن عن بناء السد الأول في الولاية. وجمع كل سكان القرية وأخبرهم بأنه سيفيد كل غوا الجنوبية.
ويقول جاجانان كورديكار، البالغ من العمر 75 عاما، والذي يحتفظ بذكريات حية عن اللقاء: "قال (باندودكار) إنه (السد) سوف يغرق قريتنا. لكن تضحياتنا ستكون من أجل خير أكبر".
واضطر كورديكار وغيره من السكان، وهم أكثر من 600 أسرة، إلى الانتقال إلى القرى المجاورة وحصلوا من الدولة على أرض وتعويض.
كان المشروع طموحا. وبُني السد على ضفاف نهر سالاوليم. وكان يطلق عليه اسم مشروع ري سالاوليم. ويهدف إلى توفير المياه لأغراض الشرب والري والأغراض الصناعية لمعظم منطقة غوا الجنوبية.
وكان من المفترض توفير حوالي 400 مليون لتر من المياه يوميا للمواطنين.
ويتذكر إيناسيو رودريغز: "عندما ذهبنا إلى القرية الجديدة، لم يكن لدينا أي شيء على الإطلاق". كانت عائلته من بين العائلات القليلة الأولى التي غادرت في عام 1982. وكان عليهم البقاء في منازل مؤقتة حتى يتمكنوا من بناء منزلهم من لا شيء، وطال الوقت بالنسبة للبعض لما يقرب من خمس سنوات.
كان غوروشاران كورديكار يبلغ من العمر 10 سنوات عندما انتقلت عائلته إلى قرية جديدة في عام 1986.
ويتذكر الفتى البالغ من العمر 42 عاما حاليا: "أتذكر والدي وهو يضع كل شيء على عجل في شاحنة صغيرة. كنت أجلس أنا أيضا في الشاحنة مع أخي وجدتي. كان والداي يتبعانا على دراجة".
وتتذكر والدته، مامتا كورديكار، ذلك اليوم بشكل أكثر وضوحا: "أعتقد أننا آخر العائلات القليلة التي غادرت القرية، كانت الأمطار قد هطلت بغزارة في الليلة السابقة. وبدأت المياه تدخل منزلنا من الحقول. اضطررنا إلى المغادرة على الفور. حتى لم أستطع أن آخذ معي مطحنة الدقيق".
ويوجد في قرية فاديم، التي يعيش فيها كورديكار حاليا، بئران كبيرتان. لكن في شهري أبريل/نيسان ومايو/أيار، بدأت تجف الآبار، فيضطر السكان إلى الاعتماد على خزانات الحكومة للحصول على مياه الشرب.
وعندما تنحسر المياه في مايو/أيار، يزور سكان كوردي الأصليون وطنهم المفقودويتجمع المسيحيون في عيد سنوي بكنيسة صغيرة. كما يحتفل الهندوس بأحد أعيادهم في المعبد خلال هذا الشهر.
وتقول فينيشا فرنانديز، عالمة اجتماع في غوا إنه "من السهل جدا بالنسبة لنا اليوم أن نحزم حقائبنا ونتحرك".
وأضافت: "لكن بالنسبة لشعب كوردي، كانت هويتهم مبنية على أرضهم. كانوا على صلة وثيقة ومباشرة بها. لذا ربما يتذكرون ذلك بشدة ويحرصون على العودة إليها".
كشفت الاختبارات التي أُجريت لجمجمة ترجع إلى العصور الوسطى، عُثر عليها في قبو يعود إلى القرن الثالث عشر الميلادي، عن أن الشخص المتوفى تعرض لضربة في الرأس.
ويعكف علماء آثار منذ فترة على فحص الرفات الذي عُثر عليها في كنيسة الثالوث المقدس في روثويل في نورثامبتونشير. ولا تزال عملية الدراسة مستمرة.
وفحص الخبراء خمس جماجم من بين رفات 2500 شخص، ما أسفر عن نتائج أشارت إلى أن واحدة منها فقط تعرضت لكسور.
وقالت ليزي كرايغ أتكنز، أستاذة الآثار في جامعة شيفلد، إن اكتشاف إصابة في جمجمة واحدة فقط يقلل من احتمالية حدوث "مذبحة" أدت إلى مقتل هذا العدد من الناس.
وقالت ليزي: "اخترناها (الجمجمة المصابة) لمحاولة التوصل إلى القصة وراء ما حدث، وذلك لأن المشهد يرجح، في وجود هذا الكم من الرفات، أن مذبحة ما حدثت هنا."
وأضافت: "لكنها كانت الوحيدة التي بدت عليها علامات التعرض للعنف."
وأشارت إلى أن هذه العظام ربما أُخرجت من منطقة مقابر اكتظت بالجثامين.
وقال التقرير، الذي نُشر في مجلة مورتاليتي، إن القبو بُني في ممر الكنيسة بمذبح خاص به.
ويرجع تاريخ تخزين هذه العظام والجماجم أسفل الكنيسة إلى الفترة من عام 1250 إلى عام 1900، وهو ما كشفه مسح التأريخ بالكربون المشع لتحديد عمر الرفات.
وكنيسة الثالوث المقدس واحدة من 13 موقعا تاريخيا ترجع إلى القرن الثالث عشر الميلادي في بريطانيا، أبرزها سان ليونارد في هايث في كنت.
وبالنسبة لأولئك الذين يشعرون أن هناك دوافع سياسية في ما يحدث فإنهم يأملون أن تفشل هذه المحاولة أيضا