ईरान और सऊदी अरब छद्म युद्ध तो लड़ ही रहे हैं. लेकिन हाल में सऊदी अरब
के आर्थिक प्रतिष्ठानों पर हूती हमले के बाद अब स्थिति बिगड़ सकती है.
खाड़ी की समुद्री सीमा पर ईरान और सऊदी अरब एक दूसरे के सामने हैं और बढ़ते तनाव से दोनों के बीच व्यापक संघर्ष का जोखिम बढ़ रहा है.
अमरीका और अन्य पश्चिमी ताक़तों के लिए खाड़ी में उनके अंतरराष्ट्रीय शिपिंग और तेल जहाजों का स्वतंत्र परिचालन आवश्यक है.
किसी
भी संघर्ष की स्थिति में इस जलमार्ग पर रुकावट पड़ेगी यह लाजिम है.
लिहाज़ा ऐसी स्थिति बनने पर अमरीकी जल सेना और वायु सेना भी संघर्ष में कूद पड़ेगी, इसकी आशंका है.
काफ़ी वक़्त से अमरीका और उसके सहयोगी देश
मध्य-पूर्व में ईरान को एक अस्थिर ताक़त के रूप में देख रहे हैं. सऊदी
नेतृत्व भी ईरान को अस्तित्व के ख़तरे के रूप में देखता है और क्राउन प्रिंस सलमान ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने की
बात करते हैं.
सऊदी अरब कितना असुरक्षित है यह हाल ही में उसके तेल
प्रतिष्ठानों पर हुए हमले से जग ज़ाहिर हो गया है. अगर युद्ध छिड़ता भी है तो यह पूरे मंसूबे के साथ नहीं बल्कि किसी अप्रत्याशित घटना के साथ शुरू हो
सकता है.
लेकिन सऊदी अरब की ख़ुद की सक्रियता, ट्रंप प्रशास
हैदराबाद के सातवें निज़ाम, मीर उस्मान अली ख़ान सिद्दिक़ी के दरबार में वित्त मंत्री रहे नवाब मोईन नवाज़ जंग ने उस दौर में ब्रिटेन में
पाकिस्तान के उच्चायुक्त के बैंक खाते में जो 10 लाख पाउंड भेजे थे वो आज
35 गुना बढ़ चुके हैं.
ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे हबीब इब्राहिम रहीमतुल्ला के लंदन बैक खाते में ट्रांसफर किए गए 10 लाख पाउंड
(क़रीब 89 करोड़ रुपए) अब 350 लाख पाउंड (लगभग 3.1 अरब रुपए) बन चुके हैं
और उन्हीं के नाम पर उनके नैटवेस्ट बैंक खाते में जमा हैं.
15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, लेकिन दक्षिणी भारत के तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद समेत कई राज्यों ने इस दिन आज़ादी का स्वाद नहीं चखा.
हैदराबाद
17 सितंबर 1948 तक निज़ाम शासन के तहत उनकी रियासत बना रहा था. इसके बाद
'ऑपरेशन पोलो' नाम के सैन्य अभियान के ज़रिए इस रियासत का विलय भारत में कर
दिया गया.
निज़ाम और
पाकिस्तान के उत्तराधिकारियों के बीच इन पैसों को लेकर लंबे वक़्त तक तनाव
रहा. लंदन में मौजूद रॉयल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में ये मामला अब भी लंबित है.
मामले में सुनवाई कर रहे जस्टिस मार्कस स्मिथ दोनों पक्षों की दलीलें सुन चुके
हैं और इसी साल अक्टूबर में इस मामले में फ़ैसला देने वाले हैं.
उनका फ़ैसला ही तय करेगा कि 3.5 करोड़ पाउंड की ये राशि किसके हाथ जाएगी.
बीबीसी ने सातवें निज़ाम और पाकिस्तान के बीच चल रही इस क़ानूनी लड़ाई और पैसों के ट्रांसफर के पीछे की कहानी जानने की कोशिश की.
न की इस क्षेत्र में दिलचस्पी की वजह से कुछ हद तक एक अनिश्चितता की ओर इशारा करती
है, जो इस मध्य-पूर्व में बने इस तनाव में एक और आयाम को जोड़ता है.
10 लाख पाउंड के ट्रांसफर की ये कहानी हैदराबाद के भारत में विलय होने के दौर की है.
उस
वक़्त हैदराबाद आसफ़ जाह वंश के सातवें वंशज नवाब मीर उस्मान अली ख़ान सिद्दिक़ी की रियासत हुआ करती थी. उस दौर में वो दुनिया के सबसे धनी
व्यक्ति माने जाते थे.
'ऑपरेशन पोलो' के ज़रिए हैदराबाद के भारत में विलय होने से पहले वो हैदराबाद रियासत के सातवें और आख़िरी निज़ाम थे.
सातवें
निज़ाम के पोते युवराज मुकर्रम जाह-आठवें का प्रतिनिधित्व करने वाली लॉ संस्था विदर्स वर्ल्डवाइड लॉ फर्म के पॉल हेविट्ट बताते हैं, "ऑपरेशन पोलो
के दौरान हैदराबाद के निज़ाम के वित्त मंत्री ने पैसों को सुरक्षित रखने के इरादे से क़रीब 10 लाख पाउंड उस वक़्त पाकिस्तान के हाई कमिश्नर के लंदन
वाले बैंक खाते में ट्रांसफर कर दिए."
1948 में ट्रांसफर किया गया यही पैसा बाद में सातवें निज़ाम के उत्तराधिकारियों और पाकिस्तान के बीच क़ानूनी जंग की वजह बन गया.
पॉल हेविट्ट बताते हैं, "जैसे ही हैदराबाद के सातवें निज़ाम को पैसों के
ट्रांसफर के बारे में पता चला कि उन्होंने पाकिस्तान से कहा कि उनके पैसे
जल्द लौटा दे. लेकिन रहिमतुल्ला ने पैसे वापिस देने से इनकार कर दिया और कहा कि ये अब पाकिस्तान की संपत्ति बन गई है."
इसके बाद 1954 में
सातवें निज़ाम और पाकिस्तान के बीच एक क़ानूनी जंग शुरू हुई. निज़ाम ने
अपने पैसे वापस पाने के लिए यूके के हाई कोर्ट का रुख़ किया और क़ानूनी
प्रक्रिया शुरू की.
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